भोजन करते समय कौन सा ऐसा नियम विधान बनाया गया है जिसके द्वारा व्यक्ति भोजन करते समय मंत्र का जाप करें जिससे आपको पुण्य प्राप्त हो हिंदू धर्म ग्रंथ में भोजन करते समय कैसे भोजन करना है कैसे मंत्र का उच्चारण करना है
कैसे विधि पूर्वक भोजन करना चाहिए इसका विधि पूर्वक नियम बनाए गए हैं जिससे व्यक्ति को स्वास्थ्य आरोग्य जीवन प्राप्त हो सके और उसे भोजन का सही लाभ प्राप्त हो हिंदू धर्म ग्रंथ में गृहस्थ को ही सबसे बड़ा बताया गया है
इन पर ही सभी जीव जंतु देवगढ़ ऋषिगढ़ पितृ गण, ईश्वर सभी लोग आश्रित रहते हैं अर्थात गृहस्थ से ही सब का भरण पोषण होता है इसलिए इसको सबसे उत्तम माना गया है की गृहस्थ से ही पूरा संसार चलता है
इसीलिए भोजन करते समय हमें इन नियमों का पता होना चाहिए जिससे हमें भोजन का सही लाभ प्राप्त हो और हमारे द्वारा ऋषि गढ़, पितृ गढ़, देवगढ़ और समस्त भूत, प्रेत कीट पतंग, पशु ,पक्षी सब का भरण पोषण हो सके और हमें इसका पुण्य प्राप्त हो इसके लिए हिंदू धर्म ग्रंथो में इसका पूरा नियम तरीके बताए गए हैं
आज हम आपको यही नियम तरीके बताने वाले हैं कि भोजन कैसे करना है वह कौन सा नियम है और भोजन करते समय कौन सा मंत्र का जाप करना चाहिए और उसका अर्थ क्या है सब कुछ आज आप जानेंगे चलिए जानते हैं
भोजन करने का नियम, मंत्र ,सहित अर्थ शास्त्रों द्वारा
![]() |
IND भोजन विधि नियम मंत्र |
भोजन करने का नियम, विधि, विधान ।
भोजन नियम विधि - गृहस्थ को चाहिए कि वह दंतुवन कुल्ले करके स्नान आदि करके सुगंधित वस्त्र धारण करें शरीर पर रत्न धारण करे , (सभी के लिए ) स्त्री सुन्दर सुगन्धयुक्त उत्तम पुष्पमाला तथा एक ही वस्त्र धारण किए हाथ- पाँव और मुँह धोकर प्रीतिपूर्वक भोजन करे। स्त्री अपने पुत्रों बड़ो बुजुर्गों को सबसे पहले भोजन परोसे उसके बाद भोजन करें.
भोजन के समय इधर-उधर न देखे । मनुष्यको चाहिए कि पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके, अन्यमना न होकर उत्तम और पथ्य अन्न को प्रोक्षण के लिए रखे हुए मन्त्र पूत जल से छिड़क कर भोजन करे जो अन्न दुराचारी व्यक्तिका लाया हुआ हो, गृह जनक हो अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कार शून्य हो उसको ग्रहण न करे।
गृहस्थ पुरुष अपने खाद्य में से कुछ अंश अपने शिष्य तथा अन्य भूखे - प्यासों को देकर उत्तम और शुद्ध पात्र में शान्तचित्त से भोजन करे किसी बेत आदि के आसन (कुर्सी आदि) पर रखे हुए पात्र में, अयोग्य स्थान में, असमय (सन्ध्या आदि काल)- में अथवा अत्यन्त (संकुचित छोटे) स्थान में कभी भोजन न करे। मनुष्य को चाहिये कि [परोसे हुए भोजन का] अग्र- भाग अग्नि को देकर भोजन करे है
जो अन्न मन्त्र पूत और प्रशस्त हो तथा जो बासी न हो उसी को भोजन करे। परंतु फल, मूल और सूखी शाखाओं को तथा बिना पका ये हुए लेह्य (चटनी) आदि और गुड् के पदार्थों पर यह लागू नहीं होता है।
आपको चाहिए की मधु, जल, दही, घी और सत्तू। के सिवा और किसी पदार्थ को पूरा न खाय । बीयादन्यत्र जगतीपते। सक्तुभ्यश्च विवेकवान् । भोजन एकाग्रचित्त होकर करे तथा प्रथम मधुरस, फिर लवण और अम्ल (खट्टा) रस तथा अन्त में कटु और तीखे पदार्थों को खाय । जो पुरुष पहले द्रव पदार्थों को, बीच में कठिन वस्तुओं को तथा अन्त में फिर द्रव पदार्थों को हो खाता है वह कभी बल तथा आरोग्य से हीन नहीं होता ।
इस प्रकार वाणी का संयम करके अनिषिद्ध अन्न भोजन करे। अन्न की निन्दा न करे। प्रथम पांच ग्रास अत्यन्त मौन होकर ग्रहण करे, उनसे पंच प्राणों की तृप्ति होती है ॥ भोजन के अनंतर भली प्रकार आचमन करे और फिर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके हाथोंको उनके अच्छे से धोकर विधिपूर्वक आचमन करे । अपने इष्ट देव को याद करते हुवे पेट पर हाथ फेर और इसे पचने और शरीर में इसका पोषण के लिए प्रार्थना करे ।।।
![]() |
स्कंध पुराण से लिया गया Photo |
भोजन करने से पहले मंत्र, प्रयोग विधि।
भोजन मंत्र - शौच आदि करके दांतो को रगड़कर साफ कर ले। फिर कुल्ले कर 'ॐ भूर्भुवः स्वः' इस मंत्र से दो बार आचमन करे। फिर विहित भोजन करने के लिए पूरब या उत्तर की ओर मुंह कर बैठ जाय। (थाल रखने की जगह पर थाल के बराबर, जलसे दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर चौकोर घेरा बनाए फिर उसके ऊपर थाली रखे। ) इसे अच्छे से समझने का प्रयास करे -
भगवान को भोग लगाए - अन्न को पात्र में परोस वाकर (यदि भोग न लगा हो तो भगवान को निवेदन कर) हाथ जोड़कर प्रणाम करे और 'ॐ अस्माकं नित्यमस्त्वेतत्' कहकर प्रार्थना करे।
फिर हाथ में जल लेकर ( दिन में ) मंत्र 'सत्यं त्वर्तेन त्वा परिषिञ्चामि' और (रात मे) 'ऋतं त्वा सत्येन परिषिञ्चामि' कहकर प्रोक्षण करे। अब पात्र से दस या पांच (अंगुल मतलब दो इंच) हटकर दाहिनी ओर पृथ्वी पर जल का आसन देकर निम्नलिखित मंत्र पढ़कर तीन ग्रस निकाले-
1-ॐ भूपतये स्वाहा । २-ॐ भुवनपतये स्वाहा। } इन मन्त्रों द्वारा पृथ्वी, 1. चौदह (भुवनों लोक ब्रह्मांड) तथा सम्पूर्ण प्राणियों के स्वामी परमात्मा की तृप्तिः की जाती है,
जिससे सबकी तृप्ति स्वतः हो जाती है। 3 - ॐ भूतानां पतये स्वाहा। पञ्च प्राणाहुति- इसके बाद दाहिने हाथ में (किंचित् थोड़ा सा पानी) जल लेकर मंत्र 'ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा' इस मन्त्र से आचमन करे (अर्थात् भोजन से पूर्व अमृत रूपी जलका आसन प्रदान करे मतलब शुद्ध जल लेकर बैठे )। आवाज न हो। इसके बाद मौन होकर बेर के बराबर पांच ग्रास द्वारा निम्नलिखित मन्त्रों से प्राणाहुतियाँ दे।
1-ॐ प्राणाय स्वाहा ।
2-ॐ अपानाय स्वाहा ।
3-ॐ व्यानाय स्वाहा ।
4-ॐ उदानाय स्वाहा ।
5-ॐ समानाय स्वाहा।
भोजन करने के बाद - फिर हाथ धोकर प्रसाद पाये। भगवान्से उपभुक्त होने के कारण इसके आस्वादन के समय अवश्य उनका प्रेम स्मरण होता रहेगा। जिनके पिता या ज्येष्ठ भाई जीवित हों, उन्हें प्राणाहुतितक ही मौन रखना चाहिये। बचे हुए बेर के बराबर अन्न को दाहिने हाथ में रखकर थोड़ा जल भी रख ले। इसे निम्नलिखित मंत्र पढ़कर बलिस्थानकी ओर रख दे-
अस्मत्कुले मृता ये च पितृलोकविवर्जिताः । भुञ्जन्तु मम चोच्छिष्टं..... पात्राच्चैव बहिः क्षिपेत् ॥
इसके बाद दाहिने हाथमें जल लेकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़ते हुए - 'ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।' आधा जल पी ले और बचे हुए आधे जलको निम्न मन्त्र पढ़ते हुए उच्छिष्ट अन्नपर छोड़ दे-
रौरवेऽपुण्यनिलये अर्थिनामुदकं पद्मार्बुदनिवासिनाम् । दत्तमक्षव्यमुपतिष्ठतु ।
अब सब बचा (हुवा) बलि-अन्न लेकर आँगन में आ जाय और उसे कौओं को दे दे। हाथ और मुँह धोकर बायीं ओर सोलह कुल्ले करे। थोड़ा जल लेकर हथेली पर रखे और इसे दोनों हथेलियों से खूब घिसकर दोनों आँखों में अँगूठे की सहायता से डाल दे। उस समय निम्नलिखित मन्त्र पढ़ता रहे-
शर्यातिं च सुकन्यां च च्यवनं शक्रमश्विनौ । भोजनान्ते स्मरन्नक्ष्णोरङ्गुलाग्राम्बु निक्षिपेत्
उचित परिपाक के लिये निम्नलिखित मंत्र पढ़ते हुए उदरपर (पेट पर )तीन बार हाथ फेरे और मंत्र बोले-
अगस्त्यं वैनतेयं च शनिं च वडवानलम् । अन्नस्य परिणामार्थं स्मरेद् भीमं च पञ्चमम्
भोजन के बाद - भगवान पर चढ़ी तुलसी, लौंग, इलायची आदि खाए ।।
भोजन के बाद के कृत्य हलका विश्राम - भोजन के बाद हलका विश्राम कर ले है। किंतु दिन में सोना मना है। भोजन के बाद लगभग सौ कदम चलकर आठ साँस तक चित्त, सोलह साँस तक दायीं करवट और बत्तीस साँस तक बायीं करवट लेट जाना चाहिये। इससे पाचन में सुविधा होती है और आलस्य भी दूर हो जाता है। पुराण आदि का अनुशीलन - विश्रामके बाद अपने कर्तव्य- कार्यर्यों में संलग्न हो जाना चाहिये। शास्त्रने कहा है कि भोजन के बाद इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्र आदि के अनुशीलन में तथा अपने जीविका उपार्जन में समय का सदुपयोग करना चाहिये। व्यर्थ समय न खाए ।
लोकयात्रा और संध्योपासन- सूर्य के अस्त होने से सवा घंटा पहले मन्दिरों में दर्शन के लिए निकले। तेजी से चले ताकि भ्रमण का कार्य भी हो जाय। वैसे प्रातः भ्रमण का अत्यधिक महत्त्व है। सूर्यास्त से 24 मिनट पहले संध्योपासन के लिए बैठ जाना चाहिए। इसके पहले पैर, हाथ, मुख धोकर घोती बदलकर आचमन कर लेना चाहिए। सायंकाल भी स्नान कर
आप चाहे तो पुराण से धर्म का सही ज्ञान स्यम पता कर सकते है हम आपको लिंक दे रहे है all Puran online reading
ऊपर बताई गई बाते एक बार में समझ में नहीं आ सकती तो आप उसे 2 से 4 बार पड़े जिससे आपको पूरी तरह समझ में आ जायेगा ।
महत्व पूर्ण बाते जरूरी जो आपको पता होनी चाहिए।
शास्त्रानुसार भोजन करनेकी पूर्ण विधि यहां लिखी गयी है। पर यदि मंत्र स्मरण न हो तो (भाव नुसार ). मतलब, यह सब बताई गई सभी क्रिया केवल मन में सोच कर कर लेना ) केवल क्रिया द्वारा भी विधि पूरी की जा सकती है।
![]() |
दैनिक नित्य कर्म पुस्तक से लिया गया है |
भोजन में मंत्र का अर्थ सहित मतलब
भोजन मंत्र का अर्थ सहित -
शास्त्रों में बताए गए भोजन करते समय जितने भी मंत्र बोले जाते हैं वे मंत्र (14 लोकों ब्रह्माण्ड) में रहने वाले जीव जंतु पशु कीट पतंग, दानव, दैत, देव गण, ऋषिगढ़, पितृ गण ,देवी देवता जितने भी इस पूरे ब्रह्मांड में हैं जीव जंतु है उन सभी को मत्रों के द्वारा भोजन अर्पित किया जाता है जिससे उनको भोजन प्राप्त होता है
और वह भोजन कर पाते हैं और आपके द्वारा दिए गए भोजन से तृप्त हो जाते हैं जिससे आपको लाखों पुण्य की प्राप्ति होती है क्योंकि आपने करोड़ जीव जंतु ऋषिगढ़, पितृ गण, देवगढ़, इन सभी को आपने भोजन कराया है जिसके कारण आपको अनेको प्रकार के पुण्य प्राप्त होते हैं मंत्रो में उन्हें का नाम लिया जाता है जिससे वे आपके द्वारा दिए गए भोजन को ग्रहण करते हैं जैसे वह भोजन कर पाते हैं मंत्र का प्रयोग उनको भोजन खिलाने के लिए ही किया जाता है
अगर कोई व्यक्ति केवल अपने लिए भोजन पकाएं और केवल खुद के लिए भोजन खाए तो वह पापी होता है उसे घोर पाप लगता है क्योंकि अन्न बनने में सूर्य देव और इंद्र देव और पृथ्वी माता का योगदान होता है क्योंकि उन उत्पन्न होने में उनकी सहायता से ही अन्य उत्पन्न होता है और आप जब खुद के लिए भोजन बनाते हैं और खुद ही कहते हैं तो उनका अपमान होता है जिसे आपको पाप लगता है
क्योंकि एक व्यक्ति के ऊपर माता-पिता पितृ ऋषि गढ़ सूर्य देव अग्नि देव पृथ्वी सबका कर्ज होता है वह सब का रीडी होता है इसलिए उनको यह सब चुकाना होता है उनको अर्पण किए बिना भोजन करना पाप की श्रेणी में आता है इसलिए भोजन करने से पहले हमें इन सभी को भोजन करना पड़ता है और मत्रों के द्वारा उनका नाम लेकर बुलाकर उन्हें भोजन कराते हैं उसके बाद जाकर हम भोजन करते हैं।
निष्कर्ष
भोजन करते समय जिस मंत्रो का प्रयोग हुवा है वह मंत्र शास्त्रों, पुराणों से लिया गया है जिसमें विधि पूर्वक भोजन कैसे करना है भोजन करते समय कौन सा मंत्र बोलना है कैसे-कैसे भोजन करने हैं कैसे-कैसे भोजन नहीं करने हैं इन सभी को बता दिया गया है यह तरीका स्कंद पुराण , विष्णु पुराण , से लिए गए हैं आप चाहे तो इनको हिंदू धर्म ग्रंथ के किताबों से खुद पढ़कर जान सकते हैं
जिससे आपको सही ज्ञान प्राप्त हो और आप गलत तरीके से भोजन न करें जिससे आपको भोजन करने का सही लाभ पुण्य प्राप्त हो सके और आप स्वर्ग लोक की प्राप्ति कर सके इसलिए हमने आपके लिए शास्त्रों अनुसार भोजन करने की विधि मंत्र को आपको हमने बता दिया है आप उसे अपने दैनिक जीवन में करना आरंभ कर सकते हैं आपको हमारे तरफ से धन्यवाद ?